
लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला चुनाव हैं: डॉ. अखलाख अहमद
विभागाध्यक्ष, राजनीति विज्ञान विभाग
अनजबित सिंह महाविद्यालय, बिक्रमगंज (रोहतास), बिहार
रोहतास दावथ संवाददाता चारोधाम मिश्रा की रिपोर्ट
लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला चुनाव हैं
लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला चुनाव है। बिना आम चुनाव के लोकतंत्र केवल एक संकल्पना बनकर रह जाता है। बिहार विधानसभा चुनाव-2025 का बिगुल बजने को है, और राज्य पूरे उत्साह से तैयार है। सभी प्रमुख राजनीतिक दल और गठबंधन अपनी रणनीतियों को अंतिम रूप दे रहे हैं। चौक-चौराहों पर बहसें गूंज रही हैं, सत्ता पक्ष जन-कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार कर रहा है, तो विपक्ष कमियों को उजागर करने में जुटा है।
ये सब चुनावी लोकतंत्र की सामान्य धड़कनें हैं। लेकिन असली सवाल यह है: इस बार मतदान को प्रभावित करने वाले कारक कौन से होंगे? सर्वे अपनी-अपनी दावेदारी ठोंक रहे हैं, ग्राउंड रिपोर्ट्स बहुत स्पष्ट नहीं हैं। फिर भी, चुनावी परिदृश्य की तेजी से बदलती तस्वीर से इंकार नहीं किया जा सकता।
भारतीय सामाजिक संरचना में जाति व्यवस्था का गहरा प्रभाव है, जो राजनीति को भी आकार देता है। उत्तर भारत में राजनीति अक्सर अगड़ी-पिछड़ी जातियों के द्वंद्व के रूप में उभरती है। बिहार में टिकट वितरण से लेकर गठबंधन तक, जातीय समीकरण प्राथमिकता पाते हैं।
कुछ दलों को विशिष्ट जातियों का प्रतिनिधि माना जाता है—जैसे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) को यादव-मुस्लिम बेस वोट, और जनता दल (यूनाइटेड) [जद(यू)] को कुर्मी-कोइरी आधार। 2025 के चुनाव में भी यही जातीय ध्रुवीकरण राजनीति की शुरुआत करेगा, यह संभावना प्रबल है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ की समझ ने बिहार की राजनीति को नया आयाम दिया है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण ‘पचपनिया वोट’ है—55 अत्यंत पिछड़ी जातियों का समूह, जिसमें विन्द, धानुक, निषाद, कुम्हार, कोहार, चौरसिया आदि शामिल हैं। ये साइलेंट वोटर हैं |
किसी एक विधानसभा क्षेत्र में इनकी संख्या सीमित हो सकती है, लेकिन समूहबद्ध रूप से इनका प्रभाव निर्णायक होता है । जनसंख्या के लिहाज से ये 20-25% वोट बैंक बनाते हैं। नीतीश कुमार ने इनकी महत्वपूर्णता को पहचाना और इन्हें केंद्र में रखकर नीतियां गढ़ीं। बिना इनके, जद(यू) का वोट शेयर महज 10 % रह जाता।
2020 के चुनावों में इनका योगदान NDA की जीत का आधार बना। इस बार भी यदि ये वोट एकजुट रहे, तो सत्ता पक्ष मजबूत रहेगा; अन्यथा विपक्ष को अप्रत्याशित लाभ हो सकता है । इसके साथ ही जदयू का बीजेपी गठबंधन में रहते हुए भी पिछड़े मुसलमान उससे सहानुभूति रखते है एवं इस पार्टी के लिए वोट भी करते हैं |
नीतीश कुमार की पसमांदा मुसलमानों के विकास के लिए जो सार्थक प्रयास किये है उसका सकारात्मक परिणाम सामने आता है | नीतीश अपनी छवि से मुसलमानों के मत भी प्राप्त करते रहें हैं एवं इस बार भी ऐसा होने से इंकार नहीं किया जा सकता |
महिला मतदाताओं की भूमिका भी अब निर्णायक है। आंकड़ों के अनुसार, बिहार में महिलाओं का मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक हो चुका है—2020 में यह 59.2% के मुकाबले 59.7% रहा। समाजशास्त्री इसे नीतीश कुमार की शराबबंदी नीति का प्रतिफल मानते हैं, जो ग्रामीण महिलाओं की छवि में सुधारक के रूप में स्थापित हुई।
इसके अलावा, सरकारी नौकरियों में 35% महिला आरक्षण, छात्रवृत्तियां, पंचायतों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी, और शिक्षक भर्ती में विशेष प्रावधानों ने इन्हें सशक्त किया। कुछ विद्वान पुरुष पलायन को भी इसका कारण बताते हैं, लेकिन आंकड़े इसे पूर्णतः सत्यापित नहीं करते। महिलाओं का यह सशक्तीकरण 2025 में फिर से वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करेगा।
आधुनिक चुनावी युद्ध अब डिजिटल मोर्चे पर भी लड़ा जा रहा है। सोशल मीडिया और आईटी सेल्स सक्रिय हैं—घटनाओं को पक्ष-विपक्ष के चश्मे से पेश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही। किसी भी घटना को अपने दलों के समर्थन एवं विरोधी दल या गठबंधन के विरोध में कैसे वातावरण तैयार किया जाये, इसके लिए दिन –रात लगे रहते हैं |
युवाओं के पास स्मार्टफोन होने से सोशल मीडिया ही सत्य का स्रोत बन गया है। जो दल का आईटी नेटवर्क मजबूत, उसका प्रभाव गहरा। 2020 में फेक न्यूज और वायरल कैंपेन ने कई सीटें पलट दीं; इस बार भी युवा वोट (बिहार की 35% आबादी 18-35 वर्ष के बीच) इसी माध्यम से प्रभावित होंगे।
समकालीन मुद्दे भी वोट शेयर के लिए अहम् साबित हो सकते हैं। विपक्ष एसआईआर (विशेष गहन पुनरीक्षण) प्रक्रिया को ‘वोट चोरी’ का हथियार बता रहा है। चुनाव आयोग की इस पहल से 65 लाख नामों का विलोपन हुआ, जिसे विपक्ष ‘अलोकतांत्रिक’ करार दे रहा है।
वक्फ बोर्ड संशोधन और धार्मिक ध्रुवीकरण जैसे राष्ट्रीय मुद्दे भी उठाए जा रहे हैं, याद दिलाते हुए ‘चौकीदार चोर है’ जैसे पुराने नारों को। लेकिन केंद्र की रैलियां और घोषणाएं इनका जवाब दे सकती हैं। पिछले चुनाव का अनुभव यह बताता है कि प्रधानमंत्री की रैली एवं घोषणाएं चुनावी परिदृश्य को अपने सत्ताधारी दल के लिए लाभप्रद हुए हैं |
बिहार का सबसे ज्वलंत मुद्दा बेरोजगारी है। युवा बेरोजगारी दर 20% से ऊपर होने के बावजूद, सरकार तेजी से भर्तियां कर रही है—शिक्षा विभाग में TRE-1 से TRE-5 तक की प्रक्रिया, पुलिस-स्वास्थ्य विभाग में रिक्तियां भरना, और विश्वविद्यालयों में सहायक प्रोफेसर भर्ती। आलोचना तो होगी कि ये चुनावी वर्ष के ‘लॉलीपॉप’ हैं, लेकिन नई पीढ़ी वर्तमान से प्रभावित होगी। ये कदम सकारात्मक वोटिंग को प्रेरित करेंगे।
इनके अलावा, एंटी-इनकंबेंसी फैक्टर, जन सुराज जैसे तीसरे विकल्प का युवा आकर्षण, जो युवाओं को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है | यह दल आप जैसी राजनीतिक दल की सफलता से कहीं न कहीं उत्साहित है एवं ऐसी सोंच है कि सत्ता का सूत्रधार हो सकता हैं|
एक वर्ग का ऐसा मानना भी है कि यह पढ़े –लिखे लोगों की ऐसी पार्टी है जिसे बिहार का नेतृत्व सौपा जाना चाहिए | हालाँकि विश्लेषकों का ऐसा मानना है कि बिहार विधान सभा के उप चुनाव में इस दल ने बीजेपी गठबंधन को लाभ पहुचायां था |
एआईएमआईएम की भूमिका छोटे रूप में ही सही सिमांचल में इसका प्रभाव तो होगा ही साथ ही अन्य जगहों पर मत ध्रुवीकरण में भी इसकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है| विचारधारात्मक टकराव, और 1.74 करोड़ नए मतदाताओं का प्रवेश भी महत्वपूर्ण हैं। EVM पर उम्मीदवारों की रंगीन फोटो और गुलाबी पेपर का उपयोग मतदान को सरल बनाएगा।
अंततः, इन सभी कारकों का समन्वय ही तय करेगा कि बिहार की बागडोर किसके हाथों सौंपी जाएगी। लोकतंत्र का असली सौंदर्य यही है—मतदाता सर्वोपरि है । लोकतंत्र का यही तकाज़ा भी है कि मतदाता अंततः सबसे बड़ा कारक सिद्ध होता है।




















