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गृहस्थ आश्रम में माता-पिता की सेवा ही सबसे बड़ी पूजा: जीयर स्वामी जी महाराज

गृहस्थ आश्रम में माता-पिता की सेवा ही सबसे बड़ी पूजा: जीयर स्वामी जी महाराज

रोहतास दावथ संवाददाता चारोधाम मिश्रा की रिपोर्ट 

दावथ (रोहतास): परमानपुर चातुर्मास व्रत स्थल पर भारत के महान मनीषी श्री लक्ष्मी प्रपन्‍न जीयर स्वामी जी महाराज ने गृहस्थ आश्रम में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा बताए। स्वामी जी ने कहा पुत्र पुत्री के लिए उनके माता-पिता की सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है। गृहस्थ आश्रम में पुत्र का तीन सबसे बड़े कर्तव्य पर भी चर्चा किए।

पहला पुत्र के लिए माता-पिता की सेवा करना, दूसरा माता-पिता की मृत्यु के बाद 13 दिन श्राद्ध कर्म विधि विधान से पूरा करना, पुत्र का सबसे बड़ा कर्तव्य है। तीसरा माता-पिता की मृत्यु के बाद गया में तर्पण करना पुत्र का सबसे बड़ा धर्म है।

यह तीन काम हर एक पुत्र को जरूर करना चाहिए। स्वामी जी ने कहा चाहे आप कहीं भी पिंडदान करें। जैसे बद्री नारायण या अन्य तीर्थ क्षेत्र में लेकिन जब तक आप गया में फल्गु नदी में पिंडदान नहीं करते हैं।

तब तक आपके पूर्वज तृप्त नहीं होते हैं। यदि आप गरीब हैं तब भी आप फल्गु नदी में जाकर के स्नान करके अपने पितर लोगों का ध्यान जरूर करें। जहां पर बालू से भी यदि आप पिंडदान करते हैं तब भी उसका बहुत बड़ा महत्व होता है।

स्वामी जी के द्वारा राजा परीक्षित के वंश परंपरा की शुरुआत कैसे हुई। किस प्रकार से व्यास जी के पुत्र शुकदेव जी श्रीमद् भागवत श्रवण करके राजा परीक्षित के पास पहुंचते हैं।

उस कथा को आगे बढ़ाते हुए स्वामी जी के द्वारा शांतनु वंश की परंपरा को समझाया गया। शांतनु जी का विवाह सर्वप्रथम गंगा जी से हुआ। गंगा जी ने विवाह के समय ही शांतनु जी से एक शर्त रखा था कि जितने भी संतान होंगे।

उनके जन्म के बाद आप गंगा जी में प्रवाहित कर देंगे। इसी शर्त के साथ गंगा जी और शांतनु जी का विवाह हुआ था। जब भी किसी संतान का जन्म होता था। उसके बाद शांतनु जी उसे गंगा जी में प्रवाहित कर देते थे।

लेकिन जब एक पुत्र का जन्म हुआ उसे समय आकाश से आकाशवाणी हुई शांतनु जी यह पुत्र बहुत ही तेजस्वी ओजस्वी बालक हैं। इसीलिए इस बार इस पुत्र को आप जल में प्रवाहित मत कीजिएगा।

जिसके बाद देवव्रत के रूप में पुत्र का जन्म हुआ। शांतनु महाराज के द्वारा इस पुत्र को गंगा जी में प्रवाहित नहीं करने के कारण गंगा जी ने शांतनु जी के शर्त तोड़ने के कारण विवाह की मरजादा को समाप्त कर लिया।

स्वामी जी ने कहा उधर देवताओं की पुत्री मत्स्यगंधा जिनका नाम सत्यवती भी है। उन सत्यवती का जन्म के बाद उन्हें जल में प्रवाहित कर दिया गया था। इसके बाद मछली के द्वारा जल में प्रवाहित बच्ची को निगल लिया गया। वहीं पर निषाद राज मछली पकड़ रहे थे। निषाद राज इस मछली को पकड़ कर घर ले आए।

जहां पर उस मछली का तो वह अपने आहार व्यवहार में सेवन कर लिए लेकिन मछली के पेट में जो बच्ची थी उसको अपना पुत्री बनाकर घर में रख लिए। उस पुत्री का नाम मत्स्यगंधा पड़ा।

क्योंकि मछली के पेट में रहने के कारण उसके शरीर से मछली जैसा दुर्गंध आता था। वही मत्स्यगंधा सत्यवती से पराशर ऋषि के तेज एवं तपस्या से व्यास जी का जन्म हुआ था। जिनके द्वारा श्रीमद् भागवत सहित 18 पुराणों की रचना की गई थी।

इधर शांतनु जी का गंगा जी से विवाह संबंध समाप्त होने के बाद शांतनु जी के मन में सत्यवती से विवाह करने का मन हुआ। इसके बाद शांतनु महाराज सत्यवती से विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे। सत्यवती ने कहा जहां मेरे पिता विवाह कर देंगे। वहीं पर मैं विवाह करूंगी।

शांतनु महाराज निषाद राज के पास भी विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे। जहां पर निषाद राज ने कहा मैं अपनी पुत्री का विवाह उसी से करूंगा जो मेरे पुत्री के द्वारा पुत्र होगा वही राजा बनेगा। जबकि आपका तो पहले से ही देवव्रत बड़े पुत्र के रूप में हैं।

इसलिए हम आपसे अपनी बेटी का शादी नहीं कर सकते हैं। इसके बाद शांतनु महाराज वापस लौट आए। यह बात देवव्रत को पता चली। जिसके बाद देवव्रत निषाद के घर पहुंचे।

जहां पर देवव्रत ने कहा हम प्रतिज्ञा लेते हैं कि पूरा जीवन ब्रह्मचारी रहेंगे। हम कभी राजगद्दी पर नहीं बैठेंगे। इसलिए आप अपनी पुत्री का विवाह मेरे पिता शांतनु महाराज से करें। इस प्रकार से देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा किया। इसके बाद से देवव्रत का नाम भीष्माचार्य हो गया।

आगे शांतनु महाराज और सत्यवती से दो पुत्र हुए। जिनका नाम विचित्रि‍वीर और चित्रांगद था।

इस तरह व्यास जी देवव्रत, विचित्रवीर और चित्रागंद चारों भाई हुए। क्योंकि देवव्रत सौतेला पुत्र हुए। जबकि सत्यवती से ही विचित्रि‍वीर और चित्रांगद का जन्म हुआ।

आगे चित्रांगद का बिना विवाह के ही मृत्यु हो गया। इसके बाद विचित्रवीर बचे।

इधर काशी के राजा के द्वारा अपने तीन पुत्री का स्वयंवर रचाया गया था। जहां पर भीष्माचार्य उस स्वयंवर में आकर उन तीन पुत्री को जीत लिए। काशी नरेश की तीनों पुत्री का नाम अंबा, अंबिका और अंबालिका था।

काशी नरेश का एक शर्त था कि जो भी स्वयंवर में विजई होगा उन्हीं से मेरी तीन पुत्री का विवाह होगा। भीष्माचार्य के द्वारा उस सभा में सभी को हराकर के इन तीन पुत्री को जीत लिया गया। इसके बाद में रथ पर लेकर कर अपने घर ले आए।

भीष्माचार्य प्रतिज्ञा ले चुके थे कि हम ब्रह्मचर्य रहेंगे। इधर अंबा, अंबिका और अंबालिका के द्वारा कहा जाने लगा कि हम लोग आप ही से शादी करेंगे। काफी प्रयास के बाद अंबिका और अंबालिका को तो भीष्माचार्य के द्वारा मना लिया गया। लेकिन अंबा नहीं मानी। अंबा तपस्या करने लगी। जिसके बाद शिव जी से उसे वरदान प्राप्त हुआ।

अंबा ने शिव जी से वरदान में भीष्माचार्य की मृत्यु का कारण बनने का वरदान मांग दिया। वही महाभारत संग्राम में अंबा श्रीखंडी के रूप में आ गई। जिसके कारण भीष्माचार्य ने युद्ध से विराम ले लिया। जिसके कारण उनका शरीर वाणों से छलनी हो गया।

इधर भीष्माचार्य अंबिका, अंबालिका को अपने भाई विचित्रवीर के साथ शादी करने के लिए मना लिए। लेकिन शादी के कुछ ही दिनों बाद विचित्रवीर का भी मृत्यु हो गया। तब तक अंबिका और अंबालिका के द्वारा कोई संतान उत्पन्न नहीं हुआ था।

अभी तक वंश परंपरा को बढ़ाने के लिए सत्यवती काफी परेशान थी कैसे वशपरंपरा को बढ़ाया जाए। जिसके बाद मन ही मन व्यास जी को याद की। व्यास जी सत्यवती के ही पुत्र थे।

माताजी की याद करने के बाद व्यास जी पहुंचे। जिसके बाद सत्यवती के द्वारा पुरी कहानी बताई गई। सत्यवती ने कहा पुत्र तुम अपने तेज और शक्ति के द्वारा वंश परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए कुछ उपाय करो।

जिसके बाद व्यास जी ने कहा कि माता तुम अपने पुत्रवधू को अपने महल में सज धज कर अच्छे से बैठने के लिए कहो। आगे सत्यवती के द्वारा इस तरीके से अंबिका और अंबालिका को समझाया गया। सबसे पहले व्यास जी अंबिका के कक्ष में गए।

व्यास जी को देखते ही अंबिका अपने दोनों नेत्रों को बंद कर ली। इधर व्यास जी अपने माता जी से इस बात की जानकारी दी और व्यास जी ने कहा कि माता पुत्र तो होगा लेकिन दोनों आंख से अंधा होगा। क्योंकि तुम्हारी बहू ने जैसे ही हमें देखा अपने दोनों नेत्रों को बंद कर लिया।

आगे सत्यवती के द्वारा कहा गया कि एक बार पुनः प्रयास करो। इसके बाद व्यास जी अंबालिका के महल में गए। जैसे ही व्यास जी पहुंचे अंबालिका का शरीर पूरी तरीके से पीला पड़ गया।

एक बार पुनः व्यास जी अपने माताजी से बताएं कि माताजी पुत्र तो होगा लेकिन वह पीलिया का रोगी होगा। क्योंकि तुम्हारी पुत्रवधू मुझे देखते ही पूरी तरीके से डर गई।

सत्यवती ने व्‍यास जी से कहा कि एक बार पुनः प्रयास करो। जिसके बाद सत्यवती ने अंबिका को समझाते हुए कहा कि इस बार कोई गलती नहीं करना। लेकिन अंबिका ने इस बार अपने महल में दासी को बैठा दिया। जैसे ही व्यास जी महल में गए दासी अच्छे से बैठी रही।

व्यास जी अपने मंत्र शक्ति के द्वारा पुत्र प्राप्ति का वरदान दे दिए। जिसके बाद उन्हें अंबिका, अंबालिका और दासी के द्वारा धृतराष्ट्र, पांडू और विदुर का जन्म हुआ। धृतराष्ट्र अंबिका के पुत्र हुए अंबालिका के पुत्र पांडु हुए और दासी के पुत्र विदुर जी हुए।

अब इधर राजगदी पर बैठने का अधिकारी वही होता है जो शरीर से पूरी तरीके से स्वस्थ हो दिमाग से स्वस्थ हो। धृतराष्ट्र तो आंख से अंधे थे। जिसके कारण वह राजकाज के अधिकारी नहीं हुए। पांडू महाराज शरीर से ठीक थे। उन्हें राजा बनाया गया।

पांडू महाराज का विवाह कृष्ण की बुआ कुंती से हुआ। कुंती को वरदान प्राप्त था कि वह अपने स्वेच्छा से संतान उत्पत्ति कर सकती हैं। तपस्या साधना के द्वारा ऋषि से आशीर्वाद के रूप में कुंती इस प्रकार की वरदान प्राप्त की थी।

इधर राजा बनने के बाद पांडू महाराज वन में चले गए जहां पर गृहस्थ आश्रम में रह रहे ऋषि महर्षि का देखभाल करने लगे। इधर एक दिन एक ऋषि को गृहस्ट मर्यादा स्वीकार करने की इच्छा थी। लेकिन उस समय दिन का समय था।

इसलिए वह ऋषि अपने शरीर को मृग के रूप में बना लिया और अपनी पत्नी को मृगी के रूप में बना दिए। जिसके बाद में फिर गृहस्‍थ मर्यादा को स्वीकार कर रहे थे । उसी समय पांडू महाराज के द्वारा उन पर तीर छोड़ दिया गया।

जिसके बाद वे लोग अपने स्वरूप में आ गए। अब उन ऋषि के द्वारा पांडू महाराज को श्राप दे दिया गया। जब भी आप अपने स्त्री के पास पुत्र की कामना से जाएंगे। उसी समय आपका मृत्यु हो जाएगा।

अब इस बात को पांडू महाराज कुंती और अपनी दूसरी पत्नी को बताए। जिसके बाद कुंती ने पांडू महाराज से कहा कि मुझे वरदान प्राप्त है कि हम अपनी इच्छा से पुत्र को प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार से कुंती के द्वारा पहले भी एक बार पुत्र की कामना की परीक्षा ली गई थी।

जिसके फल स्वरुप कर्ण के रूप में एक पुत्र का जन्म हुआ था। लेकिन यह बात कुंती ने पांडू महाराज को नहीं बताया। आगे कुंती अपने तपस्या के कारण धर्मराज युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन को पुत्र के रूप में जन्म दिया।

इधर पांडू महाराज की दूसरी पत्नी को भी कुंती ने अपना वरदान देते हुए दो पुत्र को प्राप्त करने की अधिकारी बनाया। जिसके कारण पांडू की दूसरी पत्नी माद्री से नकुल और सहदेव कुंती के वरदान से पुत्र के रूप में प्राप्त हुए।

आगे चलकर एक बार पांडू महाराज को अपनी दूसरी पत्नी माद्री से गृहस्थ मर्यादा स्वीकार करने की इच्छा हुई। जिसके बाद जैसे ही वह अपने दूसरी पत्नी के शरीर को स्पर्श किए। वैसे ही ऋषि के श्राप के कारण उनका मृत्यु हो गया।

यह सारी घटना एक वन में घटी। जिसके बाद वन में उपस्थित ऋषि महर्षियों के द्वारा विधि विधान से पांडु महाराज का क्रिया क्रम किया गया। पांडू महाराज की मृत्यु के बाद उनकी दूसरी पत्नी भी पांडू महाराज के साथ ही सती हो गई।

क्योंकि उन्होंने कहा कि मेरे कारण मेरे पति की मृत्यु हुई है। इसलिए हम भी अपने पति के साथ सती होना चाहते है। अब कुंती और पांच पुत्र वन में बचे। कुंती को पांचो पांडवों का माता कहा जाता है।

क्योंकि तीन पुत्र कुंती के और दो पुत्र कुंती के वरदान के कारण पांडू महाराज की दूसरी पत्नी माद्री से हुए। जिनकी मृत्यु के बाद पांचो पुत्रों की माता कुंती को कहा गया।

अब इधर वन में रह रहे ऋषि महर्षियों के द्वारा कुंती और उनके पांचो पुत्रों को लेकर वापस राज्य में लाया गया। ऋषियों के द्वारा बताया गया कि किस प्रकार से पांडू महाराज की मृत्यु हुई तथा पांडू महाराज के ही यह पांच पुत्र हैं। जिनका गवाह हम सभी ऋषि हैं।

स्वामी जी के द्वारा आज की कथा को यहीं तक विश्राम दिया गया। आगे की कथा अगले दिन होगी। जिसमें किस प्रकार से पांडवों को षड्यंत्र के तहत परेशान किया जाता है।

उसकी चर्चा अगले दिन की जाएगी। चातुर्मास व्रत स्थल परमानपुर में शाम के समय 5:00 बजे से लेकर 6:00 के बीच पूरी कथा पंडाल खचाखच भीड़ से भर जा रही है।

कथा के रसपान में भक्ति श्रद्धालु पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ 16 जून से श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण कर रहे हैं। जो लगातार 7 अक्टूबर तक चलेगा।

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