
शब्द का अर्थ प्रकरण से होता है, केवल शब्द से नहीं: जीयर स्वामी जी महाराज
रोहतास दावथ संवाददाता चारोधाम मिश्रा की रिपोर्ट
दावथ ( रोहतास) चातुर्मास्य व्रत स्थल परमानपुर में श्रीमद् भागवत कथा के प्रसंग के अंतर्गत जीयर स्वामी जी ने श्री रामचरितमानस की एक चौपाई ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी यह सब ताड़न के अधिकारी के बारे में विस्तार से समझाए।
स्वामी जी ने कहा सबसे पहले तो यह समझना है कि किसी भी शब्द का अर्थ प्रकरण से होता है। केवल शब्दों से इसका मतलब नहीं निकाला जा सकता है। जब भगवान श्री राम श्रीलंका जाने के लिए समुद्र के किनारे बैठकर तीन दिन तक प्रार्थना किए। समुद्र देवता हमें जाने के लिए मार्ग दे दें।
उसके बाद भी जब समुद्र नहीं माने। तब भगवान श्री राम ने धनुष पर बाण चढ़ाकर पुरे समुद्र को सूखाने का निर्णय लिया। जिसके तुरंत बाद ही समुद्र प्रकट होकर भगवान श्री राम से हाथ जोड़कर कहने लगे। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी यह सब ताड़न के अधिकारी।
यह चौपाई जो श्री रामचरितमानस में लिखी गई है। यह चौपाई समुद्र के द्वारा कहा गया है ना कि भगवान श्री राम ने कहा है। न हीं तुलसीदास जी के द्वारा लिखा गया है।
स्वामी जी ने कहा कि आज समाज में इस चौपाई को लोग गलत तरीके से परिभाषित करते हैं। लेकिन इस चौपाई में समुद्र अपना विचार अपनी मर्यादा अपने गुण की व्याख्या करते हुए भगवान श्री राम से कह रहे हैं।
अब इस चौपाई में ताड़ना शब्द का मतलब क्या होता है। यह भी समझने की जरूरत है। मिडिया संचालक रविशंकर तिवारी ने बताया कि स्वामी जी ने कहा कि ताड़न शब्द का मतलब समझना जानना विचार करना होता है ना कि ताड़ना का मतलब मारना या पिटना होता है।
इस चौपाई में शूद्र शब्द है। शूद्र का मतलब किसी जाति को लेकर नहीं कहा गया है। बल्कि शूद्र कोई भी हो सकता है। चाहे वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या अन्य जाति वर्ण के तहत आने वाले कोई भी हो। वैसा व्यक्ति जो किसी भी जाति धर्म से हो जो मांस, मछली, मदिरा, गलत आचरण को धारण करने वाला हो उसे शूद्र कहा जाता है।
ढोल का मतलब बताते हुए स्वामी जी ने कहा जो व्यक्ति तबला, ढोल, नगाड़ा इत्यादि बजाने का मास्टर हो वही व्यक्ति ढोल बजा सकता है। ढोल शब्द का मतलब भी पीटना नहीं है।
क्योंकि जब ढोल को आप किसी चीज से पीटते हैं तो उसकी आवाज सही नहीं निकलता है। इसीलिए शब्दों को प्रकरण से समझने की जरूरत है। आगे गंवार का मतलब वैसा व्यक्ति जो बिना सोचे समझे बीना जाने अपनी बातों को रखता हो उसे गंवार कहा जाता है।
पशु शब्द का मतलब जितने भी प्रकार के पशु हैं उनको बताया गया है। उन्हें अपने नियंत्रण में रखें। उनको कहीं भी विचरण करने के लिए न छोड़ें। नहीं तो पशु भटक सकते है। नारी शब्द को लेकर के भी उस चौपाई में समुद्र ने स्वभाव बतलाया। जिसमें नारी शब्द का मतलब पीटना या मारना नहीं होता है।
उस प्रकरण के अनुसार नारी शब्द का मतलब मर्यादा होता है। यानी आपके घर में कोई आपकी बेटी, बहू, माता या कोई भी स्त्री है। उसे अपने परिवार के मुखिया के नियंत्रण में रहना चाहिए। क्योंकि लड़की, पत्नी, बहू के लिए मर्यादा में रहना जरूरी है नहीं तो भटकाव आ सकता है।
इस तरीके से समुद्र ने अपना स्वभाव इस चौपाई के माध्यम से भगवान श्री राम से कहा था। लेकिन आज लोग शब्दों को अपने मतलब के अनुसार अर्थ निकालने लगते हैं। जबकि समय प्रस्तुति प्रकरण के अनुसार एक ही शब्दों का अर्थ अलग-अलग प्रकार से हो सकता है।
तुलसीदास जी के इतिहास को आप समझेंगे तो तुलसीदास जी अपने पत्नी के द्वारा दिए गए उपदेश के कारण ही घर छोड़कर के तपस्या साधना में अपना जीवन जीने लगे थे। वैसे तुलसीदास ने महिलाओं के लिए कभी भी कोई ऐसा चौपाई नहीं लिखा।
जिससे नारी का समाज में किसी भी प्रकार का भेदभाव किया जा सके। तुलसीदास जी का नारियों के प्रति आदर सम्मान का भाव था। क्योंकि वह भी अपनी पत्नी के कारण ही इतने बड़े रामचरितमानस की रचना किए थे।
परमानपुर चातुर्मास से यज्ञ स्थल पर स्वामी जी ने कल की कथा आगे बढ़ाते हुए बताया कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी पर निष्ठा होनी चाहिए। तभी हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अगर कोई जुआरी शराबी रामायण या श्रीमद् भागवत किसी को सुनाने लगे तो कोई उस पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा।
क्योंकि लोग उसके आचरण को समझते हैं। इसलिए कोई उस पर निष्ठा नहीं करेगा। वही चीज कोई साधु संत या साधु के भेष धारण करके सुनाएं तो लोग निष्ठा से उसको सुनेंगे।
कल की कथा में लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने परीक्षित राजा के वंशज के बारे में बताया था। जिसमें महाभारत का युद्ध होने के बाद महाराज युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राजा बनाया गया।
लेकिन राजा बनने के बाद भी महाराज युधिष्ठिर का मन शांत नहीं था। वह बार-बार यही सोच रहे थे कि मेरे अंदर राज्य, धन, वैभव का इच्छा नहीं होता तो यह संग्राम नहीं होता।
मेरे कारण करोड़ों लोगों का संग्राम में हत्या हो गया। जिस तरह से महाभारत युद्ध होने से पहले अर्जुन का मन अशांत था। उसी तरह युधिष्ठिर का मन राजगद्दी पर बैठने के बाद अशांत था।
लेकिन उस समय अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर शांत किया था। इस तरह युधिष्ठिर को भी द्वारकाधीश ने उपदेश दिया। लेकिन युधिष्ठिर का उसमें पूरा निष्ठा नहीं था। जिससे उनका मन शांत नहीं हुआ।
भगवान ने युधिष्ठिर को पूरा गीता का ज्ञान दिए उपनिषद, वेद सबकुछ सुना दिए। लेकिन युधिष्ठिर पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। यह देख भगवान सोचने लगे कैसे इसको समझाया जाए। फिर अगले दिन भगवान श्री कृष्णा जिस भवन में ठहरे थे।
उसमें सुबह-सुबह बैठकर दोनों आंखों को बंद करके ध्यान लगाकर बैठ गए। रोज सुबह में युधिष्ठिर और पांचो पांडव द्वारकाधीश को प्रणाम करने आते थे। जब युधिष्ठिर आए तो देखें कि भगवान श्री कृष्णा ध्यान लगा कर बैठे हैं और उनके आंखों से अश्रु धारा बह रही है।
उन्होंने श्री कृष्ण को प्रणाम किया और पूछा कि भगवान आपकी आंखों से आंसू क्यों गिर रहा है। आपका किसी ने अपमान किया है।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि मुझे कोई स्मरण करके रो रहा है। वही मुझे रुला रहा है। श्री कृष्ण ने बताया कि भीष्माचार्य 58 दिनों से बिना खाए पिए बाण सैया पर पड़े हुए। वहीं मुझे स्मरण करके रो रहे हैं। इसलिए मैं भी रो रहा हूं।
भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों को बताया की भीष्माचार्य से राजनीति कूटनीति धर्म नीति सीखना चाहिए। अब सभी लोग सोचने लगे कि सबसे पहले कौन जाएगा। उस समय श्री कृष्णा जी ने बताया कि सबसे अधिक भीष्माचार्य अर्जुन को मानते थे।
इसलिए पहले अर्जुन को जाना चाहिए। जिसके बाद अर्जुन भीष्माचार्य के दर्शन करने गए। तब भीष्माचार्य ने पूछा की जिन्हें तुम कभी परमात्मा, कभी मित्र, कभी सारथी, कभी साला कहते हो वह कहां है। यह सुनकर भगवान श्री कृष्णा भीष्माचार्य के पास पहुंचे।
तब भीष्माचार्य ने पांडवों को राजनीति धर्म नीति और कूटनीति का ज्ञान दिया। भीष्माचार्य ने बताया कि कोई भी व्यक्ति कितना भी गलती करें लेकिन जब वह क्षमा मांगने आए तो एक राजा का धर्म है कि वह उसे क्षमा कर दे। लेकिन संयम सजग और सतर्क होकर रहे।
स्वामी जी ने आगे का बताया कि जिस व्यक्ति का रहन-सहन खान पान गलत लोगों के साथ संबंध है। लेकिन ऐसे व्यक्ति को समाज से तिरस्कार भी नहीं करना चाहिए। बल्कि उन्हें सद्मार्ग पर लाने के लिए रामायण, भागवत, सत्संग के द्वारा सुधारने का भी कोशिश करना चाहिए।
स्वामी जी ने बताया कि अंगुली माल डाकू को गौतम बुद्ध के उपदेशों ने एक संत बना दिया। इसी तरह वाल्मीकि मुनि पहले एक बहुत बड़े डाकू थे। जिनको सप्तर्षियों के उपदेश ने इतना बड़ा महात्मा बना दिया।
इसी प्रसंग में स्वामी जी ने बताया कि अगर कोई व्यक्ति हमारे सरलता, सहजता, कोमलता का दुरुपयोग करता है तो अपने विवेक से काम लेकर समझना चाहिए।
स्वामी जी ने बताया कि इधर भीष्माचार्य पांचो पांडवों को ज्ञान दे रहे थे। तभी उन्होंने बताया की ना कभी पाप करना चाहिए और ना पाप करते हुए देखना चाहिए ना ही पापी की सहायता करनी चाहिए।
यह सुनकर द्रोपदी हंसने लगी। तब भीष्माचार्य ने द्रौपदी को बुलाकर पूछा की क्या हुआ तुम क्यों हंसी। क्योंकि जब भीष्माचार्य बोलते हैं तो देवता ऋषि मुनि भी सुनते हैं। बड़े घर की बहू या बड़े घर के लोगों के हंसने में भी रहस्य होता है।
इसलिए तुम बताओ कि क्यों हंसी। तब द्रौपदी ने बताया कि हे पितामह आपने पाप नहीं किया है। लेकिन पाप होते हुए देखा है और पापी का सहायता भी किया है। तब भीष्माचार्य ने कहा कि इसी पाप की वजह से मैं 58 दिनों से बाण सैया पर सोया हूं। क्योंकि 21 जन्म तक मैंने कोई पाप नहीं किया था।
भीष्माचार्य ने पांडवों को राजनीति, कूटनीति, धर्म नीति के जितने उपदेश थे सब दिए। जिसके बाद उन्होंने भगवान श्री कृष्ण को अपने पास बुलाया। फिर उनसे कहा कि हे भगवान आपने महाभारत में संकल्प लिया था कि मैं अस्त्र-शस्त्र नहीं उठाऊंगा।
लेकिन मैंने भी संकल्प लिया था कि आपका यह प्रतिज्ञा में तोड़ के रहूंगा और ऐसा ही हुआ। दूसरा मेरा संकल्प था कि जब मैं आखिरी सांस लूं तो आपका दर्शन करके हीं लूं।
आज वह भी मेरा प्रतिज्ञा आपने पूरा कर दिया। भीष्माचार्य ने भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मैंने तो अपना सारा पितृऋण पूरा कर लिया है। लेकिन एक पितृऋण है। मेरी एक बेटी है जिसका विवाह मैं अभी तक नहीं कर पाया।
यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने पूछा कि भीष्माचार्य आपने तो विवाह नहीं किया था तो आपकी बेटी कहां से हुई। तब भीष्माचार्य ने बताया कि मेरी बेटी का नाम मति, बुद्धि, विवेक है जो कि मैं आपके साथ उसका विवाह करना चाहता हूं। यह सुनकर भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि ठीक है।
आप अपनी मति, बुद्धि, विवेक बेटी का शादी मुझसे कर दीजिए। इसके बाद उत्तरायण शुरू होने वाला था। जिसमें भीष्माचार्य ने दोनों हाथ जोड़कर भगवान श्री कृष्ण को देखकर अपना शरीर त्याग दिया।
जिसके बाद भीष्माचार्य का अंतिम संस्कार पांडवों ने किया। सब होने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने भी सोचा कि अब हमें भी हस्तिनापुर को छोड़कर द्वारिका जाना चाहिए। अगे कल की कथा में भगवान श्री कृष्णा हस्तिनापुर छोड़कर द्वारकाधीश कैसे गए के बारे में विस्तार से चर्चा होगी।




















