
बिना ॐ के शिव चर्चा का कोई मतलब नहीं: श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज
रोहतास दावथ संवाददाता चारोधाम मिश्रा की रिपोर्ट
दावथ( रोहतास): चातुर्मास्य व्रत स्थल परमानपुर में भारत के महान संत श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने शिव चर्चा के बारे में विस्तार से समझाएं। भगवान शिव की चर्चा करना अच्छी बात है। लेकिन आज समाज में जो शिव चर्चा हो रहा है। उसमें ओम नमः शिवाय से ओम हटा करके नमः शिवाय बताया जा रहा है। जबकि ओम नमः शिवाय से ओम शब्द हटा देने के बाद इस वाक्य का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। ओम से ही पूरे ब्रह्मांड जगत का संचालन होता है।
ओम शब्द से ही इस जगत का उत्पत्ति है। स्वामी जी ने शिव पुराण की चर्चा करते हुए कहा कि शिव पुराण में कहां लिखा गया है कि शिवजी की चर्चा कीजिए। उसमें से ओम हटा दीजिए। आज कहा जा रहा है कि ओम हटाओ सब कुछ खाओ नमः शिवाय।
शिव पुराण में ऐसा कहां लिखा गया है। पूरे शिव पुराण को आप पढ़ेंगे तो उसमें कहीं ऐसा लिखा गया है कि ओम हटा करके नमः शिवाय जपिये तथा गलत भोजन इत्यादि कीजिए। लेकिन आज इसी को बढ़ाया जा रहा है। जो कि बहुत ही गलत है। आप अपने शरीर में मांस मदिरा गलत भोजन डालते हैं तो आपका शरीर भी अस्मशान से कम नहीं है।
क्योंकि जितने भी जीव इत्यादि मरते हैं। उनका शव नदी तालाब में डाल दिया जाता है। उस तालाब में मौजूद मछली उन सारे मांस इत्यादि को खा जाती हैं। वहीं मछली के द्वारा खा गए उस मांस इत्यादि को भी आप खाते हैं। क्या वह इस तरीके से आदमी जानवर इत्यादि का मांस नहीं खा रहा है।
इसीलिए आप शिव चर्चा कीजिए अच्छी बात है। लेकिन शिव चर्चा में समाज हित के लिए चर्चा होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे समाज में लोग गलत आचरण आहार व्यवहार करने लगे।
मिडिया संचालक रविशंकर तिवारी ने बताया कि स्वामी जी ने एक उदाहरण देते हुए कहा कि अब शिव चर्चा में माताएं यह भी कह रही है। शिव चर्चा करने से मकान बन गया। नौकरी लग गया। मकान बना नौकरी लगा यह आपके विवेक और काम पर निर्भर करता है। इसलिए मानव कल्याण के लिए शिव चर्चा शिव पुराण के अनुसार होना चाहिए।
परमानपुर चातुर्मास्य व्रत स्थल पर आज लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराजके द्वारा कल की कथा को आगे बढ़ाते हुए परीक्षित राजा के जन्म के बारे में बताया गया। कल स्वामी जी ने बताया था कि भीष्माचार्य के मृत्यु के बाद उनका अंतिम संस्कार करके सभी पांडव अपने राजमहल वापस आ गए। इसके बाद भगवान श्री कृष्ण भी सबकी आज्ञा लेकर द्वारका के लिए प्रस्थान कर गए।
द्वारिका के लोगों को जब पता चला कि भगवान श्री कृष्णा आ रहे हैं तो उनका स्वागत धूमधाम से किया। इधर पांडव अपने राज काज में व्यस्त हो गए। कुछ दिनों के बाद अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ। उसके उपलक्ष्य में पांडवों ने एक आयोजन रखा।
जिसमें भगवान श्री कृष्ण को भी बुलाया गया। जिसके बाद उस छोटे बालक को आशीर्वाद देने के लिए सभी के गोद में दिया जाने लगा। जब भी किसी के गोद में दिया जा रहा था तो वह बालक बहुत ही गंभीर हो जाता। तभी श्री कृष्णा भी वहां पर पधारे। जब उनके गोद में उस बालक को दिया गया तो बालक बहुत ही खिलखिला कर हंसने लगा। फिर उस बालक के भविष्य को देखने के लिए कई पंडितों को पांडवों ने बुलाया था। कई बड़े-बड़े विद्वान, पंडित, ब्राह्मण आए थे।
जिन्होंने उस बालक का कुंडली देख बड़े-बड़े योद्धाओं, राजाओं का उपमा देते हुए बताया कि बालक बहुत बड़ा सत्यवादी दानवीर और बड़ा योद्धा बनेगा। लेकिन भविष्य देखकर एक विद्वान ने बताया कि इस बालक से आगे चलकर एक गलती होगा।
जिससे एक ऋषि का श्राप मिलेगा। जिसके कारण इसका मृत्यु हो जाएगा। लेकिन इस बात पर किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। आयोजन खत्म होने के बाद भगवान श्री कृष्णा फिर से द्वारिका नगरी चले गए।
हस्तिनापुर में युधिष्ठिर राजा बनकर अपनी प्रजा की सेवा कर रहे थे। उनके राज्य में भगवान श्री रामचंद्र और राजा हरिश्चंद्र के राज्य की तरह सभी प्रजा बहुत खुश और मग्न थी। कुछ दिन बीतने के बाद एक दिन अचानक युधिष्ठिर का मन अशांत हो गया।
वह सोचने लगे कि यह जीवन धन, वैभव, राज पाट चलाने के लिए ही है। युधिष्ठिर ने सोचा कि अब हमें अब स्वर्गारोहण की यात्रा करना चाहिए। इसके संबंध में उन्होंने अपने पांचो भाइयों को बुलाकर इसके बारे में चर्चा किया। सभी भाइयों ने सलाह दिया कि ठीक है। परीक्षित को राजा बनाकर शुभ मुहूर्त देखकर हम लोग स्वर्गारोहण की यात्रा शुरू करेंगे।
इसी बीच युधिष्ठिर को कई तरह के अपशगुन दिखाई देने लगे। जैसे कि दिन में ही कुत्ता सियार सियारिन रो रहे थे। उल्लू घूम रहे थे। गाय के आंखों से अश्रु धारा बह रही थी। गीद्ध और चील लोगों के सिर पर मार के चले जा रहे थे।
मंदिर में भगवान ऐसा लग रहा था कि उदास बैठे हैं। यह सब देखकर युधिष्ठिर को आभास हुआ की बहुत बड़ा संकट आने वाला है। एक दिन उन्होंने अर्जुन को बुलाकर इन सारी बातों को बताया। युधिष्ठिर ने कहा कि अर्जुन एक बार तुम द्वारिका जाकर देख आओ कि द्वारकाधीश पर किसी तरह का संकट तो नहीं आया है।
इधर अर्जुन द्वारिका की यात्रा करने के लिए चल दिए। उधर द्वारका नगरी में सात्यकि और कृतवर्मा ने मदिरा पी लिया था। इसके बाद वह दोनों एक दूसरे से लड़ने लगे। कृतवर्मा भगवान श्री कृष्ण के नारायणी सेवा के सेनापति थे। सात्यकि पांडव पक्ष के थे। इस तरह सात्यकि और कृतवर्मा पांडव और कौरव का पक्ष लेकर एक दूसरे से लड़ाई करने लगे। कृतवर्मा कहते की कौरव पक्ष के साथ अन्याय हुआ है।
महाभारत युद्ध में भगवान श्री कृष्णा और पांडवों ने अधर्म किया है। सात्यकि कहते कि पांडव के साथ अधर्म हुआ है। अभिमन्यु जैसे छोटे बालक को कौरव पक्ष के बड़े-बड़े महारथियों ने मिलकर मार डाला। इसी को लेकर दोनों में बहुत बड़ा संग्राम शुरू हो गया। जिससे द्वारिका दो पक्षों में बंट गया।
यह देखकर भगवान श्री कृष्ण ने उन लोगों को कहा यह महाभारत का युद्ध नहीं है। यह द्वारका नगरी है। लेकिन सारे यदुवंशी मिलकर भगवान श्री कृष्णा और बलराम जी को मारने दौड़ गए। उन्होंने कहा कि महाभारत युद्ध में आपने कहा था कि मैं किसी भी पक्ष में नहीं रहूंगा। इसके बाद आपने रथ का पहिया लेकर कौरवों को मारने के लिए चले गए। कुछ लोग तो आपस में लड़के मर गए।
लेकिन कुछ जो बचे हुए लोग थे। उसके बाद श्री कृष्ण ने बलराम जी से कहा कि भैया अब हमारा जाने का समय हो गया है। उसी समय बलराम जी समुद्र में चले गए। फिर भगवान श्री कृष्ण ने अपने परिवार के लोगों को और जो भी लोग थे उनको बुलाए और कहा कि देखिए अब हम धरती छोड़कर जा रहे हैं। मेरे जाने के सात दिन बाद द्वारिका नगरी खत्म हो जाएगा। इसलिए जो भी बचे हुए लोग हैं उनको लेकर आप हस्तिनापुर चले जाइए।
इसी प्रसंग में स्वामी जी ने एक कथा सुनाया जिसमें एक राजा अपनी रानी को घोड़े पर बैठा कर घूमाने जा रहे थे। लोगों ने उन्हें देखा तो कहा कि बड़ा निर्दयी राजा है। एक घोड़ा पर दोनों राजा रानी बैठे हैं। इसके बाद राजा ने रानी को उस घोड़े से उतार दिया और खुद घोड़े पर बैठकर जाने लगे।
फिर लोगों ने देखा तो बोला कि बड़ा निर्दयी राजा है। रानी को पैदल लेकर जा रहा है। खुद घोड़ा पर बैठा है। फिर राजा खुद उतर गए और रानी को घोड़े पर बैठा दिया। इसको भी देखकर लोगों ने कहा कि पत्नी के मोह में बंधा हुआ राजा है। खुद पैदल चल रहा है और रानी को घोड़े पर बैठाया है।
इसके बाद राजा ने रानी को भी नीचे उतार दिया और दोनों पैदल चलने लगे और घोड़ा को पकड़ के जाने लगे। इस पर भी लोग बोले कि बड़ा मूर्ख है। घोड़ा ऐसे ही जा रहा है। दोनों पैदल चल रहे हैं। इसी संबंध में स्वामी जी ने बताया कि दुनिया अच्छा करेंगे तभी कुछ कहेंगे और बड़ा करेंगे तब भी कुछ कहेंगे।
इधर भगवान श्री कृष्ण के जाने के बाद ही अर्जुन द्वारिका नगरी पहुंचे। जहां पर उन्हें श्री कृष्ण के सारथी ने सारी घटना बतायी। जिसके बाद अर्जुन वहां जो भी बचे हुए रानी, स्त्री, बच्चे जो भी लोग थे, उनको लेकर हस्तिनापुर जाने लगे। तभी बीच में कुछ कोल भील आकर अर्जुन से लड़ाई किया और श्री कृष्ण के पत्नियों को छीन कर लेकर जाने लगे।
अब वहां पर अर्जुन का गांडीव और तीर काम नहीं कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि भगवान बता रहे हैं कि अर्जुन तुम्हारे तीर धनुष में बल मेरे ही कारण था। इस घटना को लेकर स्वामी जी ने बताया कि यदुवंशियों को यह श्राप मिला था। एक बार यादवों की सभा में अष्टवक्र ऋषि आए। उनको देखकर सभी यदुवंशी हंसने लगे। उनकी पत्नियां भी हंसने लगी। इस पर अष्टवक्र जी ने उन्हें श्राप दे दिया की सभी यदुवंशी एक दूसरे से लड़कर मर जाएंगे।
उनकी पत्नियों को श्राप दिए की तुमको कोल भील के द्वारा छीनकर ले जाएंगे।। जब भगवान श्री कृष्णा आए तो उन्होंने क्षमा मांगी। जिसके बाद अष्टावक्र मुनि ने कहा कि ठीक है तुम्हें कोल भील तो जीत कर ले जाएंगे। लेकिन उसी समय भगवान श्री कृष्ण का स्मरण करोगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।
अर्जुन भी बचे हुए लोग थे उनको लेकर हस्तिनापुर में आए। इससे पहले जब द्वारिका से आते थे तो प्रसन्न होकर आते थे। लेकिन इस बार वह बहुत उदास थे। तब महाराज युधिष्ठिर ने अर्जुन से पूछा। अर्जुन सारी बातें उनको बताएं। बाद में युधिष्ठिर ने भगवान श्री कृष्ण के परपौत्र वज्रनाभ को मथुरा का राजा बनाया गया।
फिर सांडिल्य ऋषि को बुलाकर सभी लोगों से पूछ पूछ भगवान ने जहां जो लीला किया था। उसी के अनुसार उस नगरी को फिर से बसाया गया। जिसके बाद युधिष्ठिर ने भी कहा कि मुझे वैसे भी धन वैभव और राज्य में कोई लालसा नहीं है। इसलिए अब हमें भी स्वर्गारोहण की यात्रा पर चलना चाहिए।
महाराज युधिष्ठिर ने परीक्षित को बुलाकर कहा कि हम तुम्हें राजा बनना चाहते हैं और हम सभी लोग स्वर्गारोहण की यात्रा करेंगे। इसके बाद परीक्षित को राजा बनाकर युधिष्ठिर, द्रौपदी, भीम, अर्जुन और नकुल सहदेव स्वर्गारोहण की यात्रा पर चल दिए। जाते-जाते हिमालय के बर्फ में द्रोपदी गिर गई। तब युधिष्ठिर ने कहा कि द्रौपदी हम पांचो भाइयों की पत्नी थी।
लेकिन सबसे ज्यादा स्नेहा अर्जुन से था। इसीलिए वह रास्ते में ही गिर गई। आगे जाते-जाते नकुल जी रास्ते में गिर गए। उनको अपने रूप पर बहुत घमंड था। फिर आगे जाते-जाते सहदेव जी भी रास्ते में गिर गए सहदेव जी को भी अपनी विद्या पर बहुत अहंकार था।
जाते-जाते रास्ते में अर्जुन भी गिर गए। अर्जुन को अपने गांडीव पर बहुत अहंकार था। इसलिए उन्होंने भी स्वर्गारोहण की यात्रा पूरी नहीं की। आगे चलने के बाद भीम रास्ते में गिर गए। तब युधिष्ठिर जी ने कहा कि भी तुमने आज तक खाने के अलावा कुछ नहीं सोचा। इसलिए तुम स्वर्गारोहण की यात्रा पूरी नहीं कर पाए। इस तरह युधिष्ठिर जी स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचे। उनके साथ एक कुत्ता भी था।
स्वर्ग के जो कर्मचारी थे। उन्होंने कुत्ते को रोक लिया। युधिष्ठिर जी ने कहा कि कुत्ता भी मेरे साथ जाएगा। लेकिन वह लोग नहीं माने। तब युधिष्ठिर जी ने कहा कि इतनी दूर तक कुत्ता भी मेरे साथ-साथ पीछे-पीछे आया है। इसने मेरा साथ नहीं छोड़ा। अगर यह नहीं जाएगा तो मैं भी नहीं जाऊंगा।
यह सुनकर वह कुत्ता अपने असली रूप में आ गया। वह धर्मराज थे। उन्होंने युधिष्ठिर की परीक्षा लेने के लिए कुत्ता का रूप धारण किया था। इसके बाद युधिष्ठिर स्वर्ग के अंदर प्रवेश किए। तब उन्होंने वहां पर देखा कि दुर्योधन कर्ण सहित सभी लोग वहां पर हैं। सभी लोग उनका आदर सत्कार किए।
आगे उनको आवाज सुनाई दिया। तब उन्होंने देखा कि वहां भीम अर्जुन नकुल सहदेव द्रौपदी सभी लोग स्वर्ग में नर्क जैसा कष्ट सहन कर रहे थे। तब उन्होंने पूछा कि जो लोग अधर्म किए वह स्वर्ग में क्यों है और जो जिस लोगों ने धर्म का साथ दिया वह स्वर्ग में नर्क जैसा कष्ट क्यों भोग रहे हैं।
तब युधिष्ठिर को बताया गया कि आप ही के कारण स्वर्ग में नर्क का जैसा कष्ट भोग रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैंने क्या किया। तब बताया गया कि आपने एक बार झूठ बोला है। जिसके कारण यह कष्ट झेल रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैंने कभी झूठ नहीं बोला। तभी चित्रगुप्त जी को बुलाया गया। चित्रगुप्त जी आए और उन्होंने बताया कि आपने महाभारत युद्ध में झूठ बोला था कि अश्वत्थामा मारा गया। युधिष्ठिर जी ने बोला कि यह तो मुझे द्वारकाधीश ने बोलने को बोला था।
उसी समय श्री कृष्णा वहां आकर बोले की मैंने आपको सिर्फ इतना बोला था कि आप बोल दीजिए कि अश्वत्थामा मारा गया। लेकिन आपने सत्यवादी बनने के लिए इसके साथ बोला कि नर है कि हाथी है यह मैं नहीं जानता। इसी बात से आपको झूठ बोलने का पाप लगा है।
तब चित्रगुप्त जी ने कहा कि आपने जिंदगी भर कभी पाप नहीं किया। झूठ नहीं बोला। लेकिन एक झूठ बोलने के कारण ही आपको कुछ दिन कष्ट भोगने पड़ेंगे। इसलिए युधिष्ठिर और उनके भाइयों को स्वर्ग में अल्प समय के लिए नर्क भोगना पड़ा। उसके बाद उन्हें स्वर्ग की यात्रा पुरी की। इधर राजा परीक्षित हस्तिनापुर में राजा बनकर राजकाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से चला रहे थे।




















