आदिवासी समाज का महुआ पेड़ से गहरा संबंध
सोनो जमुई संवाददाता चंद्रदेव बरनवाल की रिपोर्ट
एबीसीडी के नाम से जाना जाने वाला आदिवासी कोल्डड्रिंक गांव देहातों में पांच घरों को छोड़कर छठवें घरों में अवश्य ही मिल जाएगा । ग्रामीणों की मानें तो आज इस महुआ के बदौलत कई परिवारों का रोजी रोटी चलती है ।
साथ ही गांव मुहल्ले में दिनभर की थकान को दूर करने और अच्छी निंद प्राप्त करने के लिए महुआ से तैयार जूस लोगों का दवा के रूप में शाम का खुराक बन गया है ।
सबसे पहले लोग चेत मास के प्रारंभ से ही महुआ का पेड़ से गिरने वाला लाजवाब फुल को लोग बड़ी मेहनत के साथ इकट्ठा कर अपने घरों को ले जाते हैं , तत्पश्चात एक सप्ताह से अधिक दिनों तक कड़ी धूप में सुखाने के बाद इसे संजोकर रखते हैं ।
और बाद में फिर इस सुखे हुए महुए को बड़े बर्तनों में सड़ाया जाता है , पुरी तरह सड़ चुके महुए को चुलहे पर चढ़ाकर इससे निकलने वाली वाष्प की बुंदे को बर्तन में एकत्रित कर शराब बनाई जाती है , जिसे लोग महुआ का जूस कहते हैं ।
बिहार में लागू शराब बंदी कानुन के बाद पुलिस इसे जप्त कर लेती है और इसे तैयार करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया जाता है ।
बताया जाता है कि पेड़ों से इकट्ठा किया गया महुआ को सभी लोग शराब की तैयारी नहीं करते हैं बल्कि अधिकतर लोग इसे बेचकर अपने घरों के जरूरती सामानों में महिलाओं के लिए चांदी की जेवरात , रसोई घर के लिए जरुरी बर्तनों के साथ साथ बच्चों की पढ़ाई में लगने वाली पेन , किताब , कॉपी आदि की खरीदारी करते हैं ।
महुआ पेड़ में लगी पत्तियां फाल्गुन मास में झड़ने लगती है , पत्तियों को झड़ने के बाद इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलते हैं , जिसे महुए का कुच्चे कहा जाता है ।
धिरे धिरे यह कलियां बढ़ती जाती है ओर उनके खिलने पर जीरे से भरा सफैद कलर के फुल निकलते हैं ।
ताजी फुलों का सेवन लोग खाने के लिए उपयोग करते हैं लेकिन यही फुल जब सुख जाता है तब इसका सेवन जूस बनाकर शराब के रूप में किया जाता है ।
बताया जाता है कि पेड़ों पर लगा महुआ का फुल 20 से 25 दिनों तक लगातार जमीन पर टपकते हैं ।
इस महुआ के फुल में चीनी का आधा अंश भरा होता है जिस कारण पशु , पक्षी ओर मनुष्य सभी इसे बड़े चाव के साथ खाते हैं । साथ ही गरीब तबके के लोग इस सुखी महुए को भुनकर एवं लड्डू बनाकर खाने के लिए प्रयोग करते हैं ।
इसके अलावा अत्यधिक मात्रा में दुध की प्राप्ति के लिए लोग इस सुखी महुए को गाय ओर मवेशियों को खिलाते हैं , ताकि गाय ओर मवेशी मोटा होकर अधिक दुध देने लगते हैं ।
ज्ञात हो कि मैदानी इलाकों ओर जंगलों में बड़े पैमाने पर पाया जाने वाला ओर तेजी के साथ बढ़ने वाला वृक्ष महुआ का पेड़ है , जो तकरीबन 20 से 25 मीटर ऊंचाई तक बढ़ती है ।
इस पेड़ से खासकर प्राचीन आदिवासी समुदाय का गहरा संबंध है , क्योंकि प्राचीन काल में आदिवासी समुदाय के लोग इसकी फुलों को खाकर अपना जीवन गुजारते थे ।
जिस कारण आज भी आदिवासी समाज में पारंपरिक सांस्कृतिक लोक गीतों में महुआ का गीत गाए जाते हैं । साथ ही विशेष अवसरों पर आज भी महुआ के पेड़ों की पुजा की जाती है ।