Sunday 13/ 10/ 2024 

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भगवान श्रीराम की प्रकृति प्रेम में धरती की सुरक्षा निहित

सोनो जमुई संवाददाता चंद्रदेव बरनवाल की रिपोर्ट 

आगामी 22 जनवरी 2024 सोमवार को अयोध्या धाम में भगवान श्रीराम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा किया जा रहा है , जो निश्चित तौर पर भगवान श्रीराम के इस पांच सौ वर्ष की टेटवास वनवास के बाद मन्दिर में स्थापित होने की वास्तविक दीपावली एवं खुशी का अवसर है । भगवान श्रीराम के अयोध्या धाम में प्राण प्रतिष्ठा के बाद भारत एक नये युग में प्रवेश करेगा । क्योंकि जितनी आस्था और भक्ति के साथ जन-जन के द्वारा भगवान श्रीराम के प्रति भक्ति एवं आस्था व्यक्त की गई है उतनी ही आस्था और संकल्प से अब देश के हरेक व्यक्ति को भगवान श्रीराम के आदर्शों को अपने जीवन में उतारना होगा , साथ ही स्वयं को श्रीराममय एवं प्रकृतिमय बनाना होगा । क्योंकि श्रीराम के चौदह वर्ष के वनवास से हमें पर्यावरण संरक्षण की प्रेरणा मिलती है । जन्म , बचपन , शासन एवं मृत्यु तक उनका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति-प्रेम एवं पर्यावरण चेतना से ओतप्रोत है । आज देश एवं दुनिया में पर्यावरण प्रदूषण एवं जलवायु परिवर्तन ऐसी समस्याएं हैं जिनका समाधान श्रीराम के प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण संरक्षण की शिक्षाओं से मिलता है ।

भारतीय संस्कृति में हरे-भरे पेड़ , पवित्र नदियां , पहाड़ , झरना एवं पशु-पक्षियों की रक्षा करने का संदेश हमें विरासत में मिली है । स्वयं भगवान श्रीराम और माता सीता ने 14 वर्षों तक वन में रहकर प्रकृति को प्रदूषण से बचाने का संदेश दिया । ऋषि-मुनियों के द्वारा किया गया हवन और यज्ञ के जरिए निकलने वाले ऑक्सीजन को अवरूद्ध करने वाले राक्षसों का वध करके प्रकृति की रक्षा भगवान श्रीराम ने की थी । जब भगवान श्रीराम ने हमें प्रकृति के साथ जुड़कर रहने का संदेश दिया है तो हम वर्तमान में क्यों प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने में लगे हैं इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम प्रकृति की रक्षा करें । गोस्वामी तुलसीदास ने 550 वर्ष पूर्व रामचरित मानस की रचना करके श्रीराम के चरित्र से दुनिया को श्रेष्ठ पुत्र , श्रेष्ठ पति , श्रेष्ठ राजा , श्रेष्ठ भाई के अलावा प्रकृति प्रेम और मर्यादा का पालन करने का संदेश दिया है । रामचरित मानस एक दर्पण है जिसमें व्यक्ति अपने आपको देखकर अपना वर्तमान सुधार सकता है एवं पर्यावरण की विकराल होती समस्या का समाधान पा सकता है ।

भारतीय समाज का तानाबाना दो महाकाव्यों रामायण एवं महाभारत के इर्द-गिर्द बुना गया है । इनमें जीवन के साथ मृत्यु को भी अमृतमय बनाने का मार्ग दिखाया गया है । इसमें शरीर की मोक्ष मार्ग के अद्भुत ओर विलक्षण उदाहरण हैं । रामायण में प्रभु श्रीराम चलते हुए सरयू नदी में समा जाते हैं और महाभारत में युधिष्ठिर हिमालय को लांघकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं । इन दोनों ही घटनाओं में महामानवों ने मृत्यु का माध्यम भी प्रकृति यानी नदी एवं पहाड़ को बनाकर जन-जन को प्रकृति-प्रेम की प्रेरणा दी है । लेकिन हम देख रहे हैं कि आज हमने मोक्षदायी नदी और पहाड़ों की ऐसी स्थिति कर दी है कि वहां मोक्ष तो क्या जीवन जीना भी कठिन हो गया है । क्या हम नदियों एवं पहाड़ों को मोक्षदायी का सम्मान पुनः प्रदान कर पाएंगे । यह हमारे जमाने का यक्षप्रश्न है जिसका उत्तर देने श्रीराम और युधिष्ठिर नहीं आएंगे , लेकिन हमें ही श्रीराम एवं युधिष्ठिर बन कर प्रकृति एवं पर्यावरण के आधार नदियों एवं पहाड़ों के साथी बनना होगा तथा उनका संरक्षण एवं सम्मान करना होगा । आज संपूर्ण विश्व में नदियों , पहाड़ों , प्रकृति के प्रदूषण को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है , लेकिन हजारों साल पहले भगवान श्रीराम ने प्रकृति के बीच रहकर प्रकृति को बचाने के लिए प्रेरित किया । भगवान श्रीराम वनवास काल में जिस कुटीर में निवास करते थे वहां पांच वृक्ष पीपल , काकर , जामुन , आम व वट वृक्ष था जिसके नीचे बैठकर भगवान श्रीराम और माता सीता भक्ति आराधना करते थे । अनेक स्थानों पर तुलसीदासजी एवं वाल्मीकिजी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है । रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न एवं स्वर्णिम काल था । मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुये थे । श्रीराम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थी । वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे । मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे । वायु मन्द गति से चलती थी , जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था । इसलिए जो कुछ हम सब रामायण से समझ पाते हैं , वही मनुष्य के जीवन जीने की सनातन परंपरा है साथ ही वही परंपरा ही हम सबको यह बताती है कि प्रकृति रामराज्य का आधार है ।

हम श्रीराम तो बनना चाहते हैं पर श्रीराम के जीवन आदर्शों को एवं प्रकृति-प्रेम को अपनाना नहीं चाहते जोकि एक बड़ा विरोधाभास है । अजीब है कि जो हमारे जन-जन के नायक हैं , सर्वोत्तम चेतना के शिखर हैं , जिन प्रभु श्रीराम को अपनी सांसों में बसाया है , जिनमें इतनी आस्था है , जिनका पूजा करते हैं , हम उन व्यक्तित्व से मिली सीख को अपने जीवन में नहीं उतार पाते । प्रभु श्रीराम ने तो प्रकृति के संतुलन के लिए बड़े से बड़ा त्याग किया । अपने-पराए किसी भी चीज की परवाह नहीं की । प्रकृति के कण-कण की रक्षा के लिए नियमों को सर्वोपरि रखा और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए । पर हमने यह नहीं सीखा और प्रकृति एवं पर्यावरण के नाम पर नियमों को तोड़ना आम बात हो गई है । प्रकृति को बचाने के लिये संयमित रहना और नियमों का पालन करना चाहिए , इस बात को लोग गंभीरता से नहीं लेते । प्रकृति , पर्यावरण और प्रगति के मध्य अन्तः सम्बन्ध है जिनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण , सांस्कृतिक विरासत एवं श्रीराम के जीवन से निर्मित एवं विकसित होता है । इस संदर्भ में भारतीय हिन्दू संस्कृति की वैश्विक भूमिका प्राचीनकाल से ही मानी गयी है । वाल्मीकि रचित रामायण से लेकर तुलसीदास रचित रामचरित मानस में प्रकृति चित्रण , पर्यावरण संचेतना एवं पर्यावरण संरक्षण का विस्तृत उल्लेख किया गया है । वास्तव में हिन्दू धर्म एक विशिष्ट पूजा पद्धति , आस्था तक ही सीमित नहीं है वरन जैसा कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी हिन्दू धर्म को परिभाषित करते हुए कहा है कि हिन्दूधर्म एक जीवनशैली है । हिन्दू धर्म की इस जीवनशैली में धर्म तथा पर्यावरण में सह-सम्बन्ध माना गया है । जिसके अन्तर्गत पर्यावरण प्रकृति के साथ मानव द्वारा उचित , संवेगात्मक , संवेदनात्मक एवं सामन्जस्यपूर्ण सम्बन्ध निभाना ही उसका धर्म है । पृथ्वी को धरती माता के रूप में पूजित माना गया तथा सूर्य , जल , वायु , वृक्ष , अग्नि सभी को देवता मानकर पूजनीय माना गया । केवल यही नहीं विभिन्न देवी-देवताओं के वाहक के रूप में विभिन्न पशु-पक्षियों की भी आराधना की पद्धति विकसित की गयी । जल , वायु को दूषित करना , वृक्षों का अनावश्यक रूप से काटने को पाप माना जाता था क्योंकि उस समय ऋषि , मुनियों को पर्यावरण के इन महत्त्वपूर्ण घटकों के महत्त्व का ज्ञान था । तत्त्कालीन भारतीय सामाजिक जीवन में पर्यावरणीय तत्त्वों के साथ सामंजस्य की भावना धर्म से जुड़ी हुई थी एवं रामराज्य वन क्षेत्रों से भरा हुआ था । सभी वृक्ष हरे-भरे पुष्प तथा फल सम्पन्न थे । समृद्ध वन में वन्यजन्तु स्वाभाविक रूप से रहा करते थे । सभी वन्यजीव ऐसे वन क्षेत्र में प्रफुल्लित थे । शेर , हाथी एवं विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी तथा विभिन्न प्रजातियों के हिरण आदि जीवन को जीवन्त बनाया करते थे । रामराज्य में सभी जीव-जन्तु प्रसन्न मन से अपना स्वाभाविक जीवन जीते थे । प्रकृति के किसी भी अवयव से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाती थी । वन क्षेत्रों की कमी से ईंधन एवं चारा की विकट समस्या उत्पन्न होती है । ग्रामीण क्षेत्र ईंधन एवं चारा की कमी से बुरी तरह से प्रभावित होते हैं । चारे की कमी से दूध-दही का उत्पादन घटता है जो मानव जीवन के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । पशु-पक्षियों के शिकार एवं व्यापार से सृष्टि-संतुलन बिगड़ता है । रामराज्य में ईंधन एवं चारा की कमी नहीं थी , गाय को पूजनीय एवं माता माना जाता था इसलिये गाय पर्याप्त मात्रा में दूध देती थी । आज इक्कीसवीं शताब्दी में पर्यावरण प्रदूषण के रूप में मानव जाति के अस्तित्त्व को ही चुनौती प्रस्तुत कर दी है । वायु प्रदूषण , जल प्रदूषण , ध्वनि प्रदूषण , मृदा प्रदूषण , रेडियो एक्टिव प्रदूषण , ओजोन परत में छिद्र , अम्लीय वर्षा इत्यादि का अत्यन्त विनाशकारी स्वरूप बृद्धिजीवी , विवेकशील वैज्ञानिकों की चिन्ता का कारण बन चुके हैं । जब मनुष्य पृथ्वी का संरक्षण नहीं कर पा रहा तो पृथ्वी भी अपना गुस्सा कई प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखा रही है । वह दिन दूर नहीं होगा जब हमें शुद्ध पानी , शुद्ध हवा , उपजाऊ भूमि , शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी । इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा । निश्चित ही इन सभी समस्याओं का समाधान श्रीराम के प्रकृति प्रेम में मिलता है, श्रीराम के मन्दिर का उद्घाटन निश्चित ही रामराज्य की स्थापना की ओर अग्रसर होने का दुर्लभ अवसर है । इस अवसर पर हमें श्रीराम के प्रकृति-संरक्षण की शिक्षाओं को आत्मसात करते हुए देश ही नहीं , दुनिया की पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन एवं सृष्टि-असंतुलन की समस्याओं से मुक्ति पानी चाहिए ।

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